भारत में भाषा विवाद: ठाकरे बंधुओं का विरोध, शिक्षा नीति और राजनीतिक टकराव
भारत को यदि किसी एक विशेषता के लिए पहचाना जाए, तो वह है — विविधता में एकता।
यहाँ सैकड़ों भाषाएँ, बोलियाँ, संस्कृतियाँ और परंपराएँ एक ही राष्ट्र में समाहित हैं।
लेकिन हाल के वर्षों में यह सांस्कृतिक विविधता राजनीति के ज़रिए टकराव में बदलती दिख रही है, खासकर हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के विवाद के रूप में।महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु से जुड़ी हालिया घटनाएँ इस बहस को फिर से सतह पर ला चुकी हैं।
🔹 महाराष्ट्र में हिंदी पर विवाद और ठाकरे बंधुओं का विरोध
महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में एक आदेश जारी किया कि कक्षा 1 से 5 तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य किया जाएगा।
इस आदेश का ठाकरे बंधुओं — राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे — दोनों ने मिलकर विरोध किया।
दो दशक बाद पहली बार दोनों भाई एक साथ किसी मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से खड़े दिखे।
विरोध और विवाद बढ़ने के बाद, सरकार को पीछे हटना पड़ा और अब हिंदी को केवल वैकल्पिक भाषा के तौर पर रखा गया है।
छात्र मराठी और अंग्रेज़ी के अलावा हिंदी या कोई अन्य भाषा चुन सकते हैं —
लेकिन केवल तब, जब कम से कम 20 छात्र उस भाषा को चुनें। अन्यथा उसे ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाया जाएगा।
🔸 राजनीतिक विरोध से हिंसा तक: गिरता स्तर
महाराष्ट्र में यह मामला तब और गंभीर हो गया जब राज ठाकरे की पार्टी (MNS) के कार्यकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर हिंदी बोलने वालों से मारपीट की गई।
ऐसे वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गए, जिसमें लोग केवल मराठी न बोलने के कारण पीटे गए।
इसी तरह की घटनाएं कर्नाटक में भी हुईं, जहाँ कन्नड़ न बोलने पर लोगों को परेशान किया गया।
SBI की एक महिला कर्मचारी को केवल इसलिए ट्रांसफर कर दिया गया क्योंकि उसने ग्राहक से कन्नड़ में बात नहीं की।
🔹 हिंदी थोपने का आरोप बनाम नई शिक्षा नीति (NEP 2020)
2020 में लागू हुई नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत थ्री लैंग्वेज पॉलिसी लाई गई।
इसके अंतर्गत सभी स्कूलों को तीन भाषाएँ पढ़ानी होंगी —
दो भारतीय भाषाएं और एक विदेशी भाषा (जैसे अंग्रेज़ी)।
यह नीति किसी एक भाषा को अनिवार्य नहीं बनाती, लेकिन राज्यों को अपनी पसंद से भाषाएँ चुनने की स्वतंत्रता देती है।
इसके बावजूद दक्षिण भारत के कुछ राज्यों ने इसे हिंदी थोपने की साजिश मानते हुए विरोध किया।
🔸 तमिलनाडु: ऐतिहासिक विरोध का गढ़
तमिलनाडु भाषा आंदोलन का ऐतिहासिक केंद्र रहा है।
1930 से लेकर 1965 तक हिंदी के विरोध में बड़े आंदोलन हुए, जिनमें कई बार हिंसा भी देखी गई।
2025 में राज्य सरकार ने यहाँ तक किया कि रुपये के चिन्ह को तमिल लिपि में बदला गया —
यह संदेश था कि हम अपनी भाषा और संस्कृति के लिए समझौता नहीं करेंगे।
🔹 एम.के. स्टालिन का बयान और हिंदी की भूमिका पर सवाल
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हिंदी को लेकर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा:
“हिंदी ने उत्तर भारत की 25 से अधिक भाषाओं को निगल लिया है।
भोजपुरी, मैथिली, गढ़वाली, ब्रज, मगही जैसी भाषाएं अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।”
उनका कहना है कि “एक अखंड हिंदी पहचान” का सपना भारत की बहुभाषी संस्कृति के लिए खतरा है।
🔸 तो क्या हिंदी देश को जोड़ सकती है?
निस्संदेह, हिंदी भारत की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और एक संपर्क भाषा (link language) की भूमिका निभा सकती है।
लेकिन यह तभी संभव है जब हिंदी भाषी राज्य भी अन्य भाषाओं और संस्कृतियों का सम्मान करें।
देश की एकता थोपने से नहीं, आपसी समझ और सहयोग से बनती है।
🛑 भाषा से प्रेम हो, पर नफरत नहीं
यह सच है कि भारत में कई भाषाएँ संकट में हैं —
लेकिन इसके लिए केवल हिंदी को दोषी ठहराना उचित नहीं।
जैसे मेरी अपनी मातृभाषा गढ़वाली अब समाप्ति की कगार पर है, लेकिन इसके लिए हिंदी नहीं,
बल्कि हम खुद — गढ़वाली बोलने वाले — जिम्मेदार हैं, जिन्होंने इसे अपनी अगली पीढ़ी तक नहीं पहुँचाया।
✅ निष्कर्ष: अपनी भाषा बचाइए, दूसरों की इज़्ज़त कीजिए
- अपनी मातृभाषा से गर्व करें, उसे बोलें, पढ़ें और सिखाएँ
- लेकिन दूसरी भाषाओं के प्रति हिंसा, कट्टरता या नफरत का रास्ता न अपनाएँ
- भाषा राजनीति का हथियार नहीं, संस्कृति का सेतु बने
- केवल संविधान और संवाद ही भारत की विविधता में एकता बनाए रख सकते हैं
by Vikesh Shah