BLOG- मुंस्यारी: मेरी जिंदगी के सबसे छोटे लगने वाले सबसे बड़े 7 दिन और 7 रात
By Vikesh Shah
लंबे वक्त से मुन्स्यारी जाना चाहता था। इसीलिए नहीं कि वो जगह खूबसूरत है बल्कि इसीलिए क्योंकि मेरा दोस्त वहां रहता है। और करीब 13 साल की दोस्ती के बाद मैं पहुंच गया मुन्स्यारी — सिर्फ अपने दोस्त से मिलने ही नहीं, बल्कि शहर के शोर में हर रोज की एंग्जाइटी और प्रेशर से भी मुझे बचना था।
मुन्स्यारी का ये सफर आसान नहीं था। पहली बार देहरादून से इतनी दूर कार चला कर जा रहा था। मैंने शुरुआत ही प्लानिंग के साथ की। मुन्स्यारी के नाम को लेकर एआई से पूछा तो उसने बताया कि मुन्स्यारी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले की जोहार घाटी में बसी एक छोटी सी हिमालयी घाटी है।
ये जोहार घाटी का प्रवेश द्वार है, जो तिब्बत–भारत व्यापार मार्ग (सॉल्ट रूट) का प्रमुख पड़ाव था। 19वीं शताब्दी के ब्रिटिश सर्वेक्षणों (विलियम कूली की 1817 डायरी, History of the Kumaon Kingdom) में इसे ‘तिब्बती कारवां का रेस्ट स्टॉप’ कहा गया।
आगे एआई ने मुन्स्यारी नाम का मतलब बताया कि “मुंस्यार की आरी” या “मुंस्यार की यारी” → जो समय के साथ छोटा होकर ‘मुन्स्यारी’ बन गया।
इसे तोड़कर बताया जाए तो मुंस्यार या मुंस को गढ़वाली–कुमाऊँनी में “आदमी / व्यक्ति / इंसान” कहते हैं और यारी या आरी को जगह, स्थान या इलाका। तो मुन्स्यारी का पूरा मतलब हुआ:
“मुंस्यारों (लोगों) की जगह” या “जहां अच्छे इंसान रहते हैं” या “दोस्तों–यारों का इलाका।”
मुन्स्यारी का ये मतलब कितना सटीक या कितना सही है, मुझे बिल्कुल भी नहीं पता क्योंकि मुन्स्यारी का इतिहास भारत–तिब्बत व्यापार से जुड़ा है। मेरे लिए एआई द्वारा मिला ये जवाब कि मुन्स्यारी मतलब दोस्तों–यारों का इलाका, इतना काफी था कि मैं अपने सफर को लेकर और ज्यादा उत्साहित हो जाऊं। और इसी उत्साह के साथ मैं मुन्स्यारी के लिए देहरादून से निकलने के लिए तैयार हुआ। करीब 450 किलोमीटर से ज्यादा का सफर आसान नहीं रहने वाला था।
मैंने अपना सारा सामान पैक किया — कपड़े, गर्म जैकेट, अंदर से पहनने के लिए इनर्स और गर्म मोज़े। साथ ही कार में एक बड़ी कंबल और स्लीपिंग बैग के साथ-साथ एक ब्यूटेन और बर्नर भी ले लिया, क्योंकि सफर को इंजॉय करते हुए जाना था। 450 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी थी, इसीलिए मैंने सोचा कि एक रात 200 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग में बिताऊँगा और फिर अगली सुबह कर्णप्रयाग से आगे का रास्ता तय किया जाएगा क्योंकि वहां से आगे मैं कभी नहीं गया था।
सफर की शुरुआत
अब जर्नी की शुरुआत सुबह होती है — सुबह 8 बजे से। प्लानिंग तो वैसे सुबह 5 बजे निकलने की थी, लेकिन वो कहते हैं ना, प्लानिंग के हिसाब से कुछ नहीं होता। मैंने अपना सफर सुबह 7 बजे के बाद शुरू किया और फिर 8 बजे मेरी साथी ज्योति नेगी को पिक किया और देहरादून से आगे निकले।

देहरादून से निकलने के बाद हम सबसे पहले ऋषिकेश से होते हुए ब्यासी की ओर बढ़े। रास्ते में रुककर चाय–नाश्ता किया जो हमने घर से पैक किया था। मम्मी के हाथों के परांठे और अचार सड़क किनारे चटाई बिछाकर, सर्दियों की नरम-नरम धूप में खाने का आनंद ही कुछ और होता है।
11:30 बजे के आसपास वहां से निकलकर हम सीधा देवप्रयाग में संगम देखने के लिए रुके। देवप्रयाग का धार्मिक महत्व उत्तराखंड समेत पूरे देश के लिए जितना गहरा है, उतना ही गहरा है देवप्रयाग के उस मंजर की खूबसूरती जिसमें हमें अलकनंदा और भगिरथी मिलकर ‘गंगा’ बनती हुई दिखती है।

गंगा का धार्मिक महत्व शायद हिंदुओं के लिए विशेष होगा, लेकिन गंगा को बनते हुए देखने का सौभाग्य इस ब्रह्मांड के हर एक व्यक्ति को जरूर मिलना चाहिए। भगिरथी और अलकनंदा के संगम ने देवप्रयाग के वातावरण को इतना अलौकिक बनाया है कि मन करता है कि इसे बस निहारते ही रहें। संगम में बस वक्त के साथ ठहर जाने का मन करता है।
हालांकि हमें आगे निकलना था, इसीलिए कुछ देर गंगा को गंगा बनते देखकर हमने संगम से 1 बजे के आसपास विदा ली।

देवप्रयाग के बाद अगला पड़ाव था श्रीनगर का। श्रीनगर उत्तराखंड की भूमि के लिए क्या महत्व रखता है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि ये भूमि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांति का एक प्रमुख केंद्र हुआ करती थी। यहां ऐतिहासिक गढ़वाल विश्वविद्यालय है जिसका नाम हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय है। इस धरती पर घुसकर ही यहां की ऐतिहासिक वाइब महसूस हो जाती है।
यहां हमने अपने पहले दिन की जर्नी का अधिकतर समय बिताया। चौरास कैंपस से लेकर श्रीनगर बाजार तक हम घूमे, क्योंकि ज्योति ने हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन किया है, इसीलिए उन्होंने मुझे श्रीनगर गढ़वाल में घुमाकर कई जानकारियां दीं।

यहां से कुछ ही दूरी पर चर्चित धारी देवी मां का मंदिर है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार धारी देवी को उत्तराखंड के चारों धामों का रक्षक माना जाता है। कहा ये भी जाता है कि 2013 की केदारनाथ आपदा धारी मां के मंदिर को हटाने की वजह से ही आई थी।
16 जून 2013 को अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के निर्माण के लिए धारी देवी मंदिर से देवी की मूर्ति को उसके मूल स्थान से हटा दिया गया था। इसके कुछ ही घंटों बाद केदारनाथ की विनाशकारी आपदा आई थी — पूरी दुनिया को हिला देने वाली इस आपदा में हजारों लोगों की जान गई थी। आधिकारिक आंकड़ा 6000 से ज्यादा का है, लेकिन यह आंकड़ा 10,000 से ऊपर ही माना जाता है।
केदारनाथ की इस विकराल आपदा के बाद देवी की मूर्ति को मूल स्थान पर ही ऊंचाई पर पुनः स्थापित कर दिया गया।

यहां अलकनंदा में झील पर बने खूबसूरत धारी मां के मंदिर के हमने सड़क से ही दर्शन किए और आगे ‘मिनी गोवा’ के नाम से मशहूर नदी के एक किनारे पर रुके। यहां की रेत सच में आपको किसी बीच का अनुभव कराती है। यहां आप रेत पर चलकर इंजॉय कर सकते हैं और बोटिंग भी कर सकते हैं।
हमने यहां जमकर फोटो खिंचवाई और रेत पर चलकर बीच जैसा आनंद लिया।

यहां से हम करीब सवा चार बजे बहुत सारे फोटो और वीडियो बनाकर निकले, क्योंकि हमें रात होने से पहले कर्णप्रयाग पहुंचना था। इसीलिए हम यहां से निकले और सात बजे से पहले हम कर्णप्रयाग पहुंचे और वहां अपने मित्र के यहां स्टे किया।
दूसरे दिन की शुरुआत

अगले दिन हमने सुबह-सुबह ही मुन्स्यारी के लिए अपनी गाड़ी दौड़ाई। और यकीन मानिए, असली सफर मेरा यहां से शुरू हुआ। पहली बार कर्णप्रयाग से आगे आया था, अनजान रास्तों पर सफर करते हुए अलग ही मज़ा आता है।
आप नए व्यू देखते हैं, नए पहाड़, नई सड़कें और नया कल्चर — ये सब आपको बहुत कुछ सिखाता है। और खासकर पहाड़ी सफर तो अपने आप में ही एक सीख रहता है।

कर्णप्रयाग से आगे रास्ता ठीक है। ग्वालदम तक का सफर काफी अच्छा रहा। बीच-बीच में कहीं पर सड़कें खराब दिख जाती हैं, लेकिन ओवरऑल रास्ता काफी चौड़ा और काफी अच्छा मिलता है।
ग्वालदम की चढ़ाई काफी खूबसूरत दिखती है। यहां से बर्फीली चोटियों का नजारा और ठंड का एहसास हमें होने लगा था। और यहीं से चौड़ी डबल-लेन सड़कों का सफर खत्म हो जाता है।
ग्वालदम के बाद सिंगल लेन सड़क शुरू होती है। बागेश्वर तक सड़क जंगलों के बीच से निकलती है। संकरी सड़कों पर कई बार जाम जैसी स्थिति भी बनती रही। किसी बड़ी गाड़ी के आने पर जगह देने के लिए गाड़ी बैक भी करनी पड़ी।
सुबह के करीब साढ़े ग्यारह बजे हम बागेश्वर पहुंचे और यहां से गाड़ी पर तेल डलवाकर बिना रुके आगे निकल पड़े।

बागेश्वर से करीब 50 किलोमीटर दूर हम एक खूबसूरत सड़क पर रुके और वहां हमने अपने लिए खाना बनाया। दोपहर 2 बजे के आसपास हमने खाना बनाना शुरू किया और करीब 1 घंटे तक चले इस काम के बाद वहां से धूप छंट गई थी।
इसलिए खाना एक बर्तन में रखकर हमने डिसाइड किया कि हम कहीं धूप में जाकर खाना खाएंगे। 3 बजे हम वहां से निकले और 40 मिनट गाड़ी चलाने के बाद एक और शानदार जगह पर रुककर खाना खाया।
ऐसा इसीलिए क्योंकि पहाड़ों में खूबसूरत जगहें तो बहुत मिलती हैं, लेकिन सड़क किनारे गाड़ी लगाने की जगह बहुत कम मिलती है।

4 बजे तक हम खाना खाकर निकले और अब ठानकर निकले कि जल्दी मुन्स्यारी पहुंचना है, क्योंकि अंधेरा तो 6 बजे तक पूरी तरह हो जाता है।
जैसे-जैसे आगे बढ़ते रहे, लगा कि जिस तरह का रास्ता है, हमने देरी कर दी है क्योंकि रास्ता बहुत खराब था और अंधेरे में उस खराब रास्ते पर गाड़ी चलाना और भी मुश्किल।

जब तक हम भिर्ती वॉटरफॉल तक पहुंचे थे, तब तक उजाला था। लेकिन जैसे ही वक्त पौने छह बजे का हुआ, अंधेरा छा गया। खराब सड़कों पर गाड़ी चलाने में डर भी लग रहा था।
मैंने आराम से बिना किसी तेजी के अंधेरे में संयम से गाड़ी चलाई। अंधेरे में इस तरह की अनजान सड़क पर मेरे लिए गाड़ी चलाना बहुत नया था।
लेकिन अंधेरे में पहाड़ी रास्तों पर गाड़ी चलाना कुछ वजहों से आसान भी हो जाता है, जैसे — अंधेरे में मोड़ों पर आती गाड़ियों की लाइट से पहले ही पता चल जाता है कि कोई आ रहा है या नहीं। साथ ही सड़क किनारे खाई दिखती नहीं है, इसीलिए कॉन्फिडेंस में गाड़ी चलाई जाती है।
नुकसान मुझे केवल ये लगा कि अंधेरे में अगर संकरे रास्ते पर किसी गाड़ी को रास्ता देने के लिए बैक करना पड़े, तो पीछे कुछ भी नहीं दिखता — जो जानलेवा हो सकता है।
हम खुशकिस्मत रहे कि ज्यादा गाड़ियाँ हमें अंधेरे में नहीं मिलीं, जिस वजह से हम साढ़े 6 बजे तक मुन्स्यारी के गेट पर पहुंच चुके थे।
यहां से मैंने अपने दोस्त महेश पापड़ा को फोन मिलाया और सीधा उससे मुलाकात की। वो हमें अपने घर बर्निया गांव ले गया, जहां हमने खाना खाया और सो गए।
तीसरे दिन मुंस्यारी का खलिया टॉप
हमारी जर्नी के तीसरे दिन हम मुन्स्यारी की खूबसूरती के लिए तैयार थे। माही का बचपन मुन्स्यारी में गुजरा था, इसीलिए उसे यहां घूमने लायक कई जगहें पता थीं।
वैसे तो यहां खलिया टॉप का ट्रेक है, जिसे हमने भी किया। लेकिन क्योंकि मुन्स्यारी, मसूरी, नैनीताल और हर्षिल जैसे पर्यटक स्थल जैसा विकसित नहीं हो पाया है, इसीलिए यहां पर्यटन की अपार संभावनाओं को तलाशा जा रहा है।
साहसिक संस्थाएं हिमालयन शेफर्ड और लास्पा अल्पाइन ट्रेल मुन्स्यारी में नए ट्रैकिंग रूट की खोज करेंगी। साहसिक यात्राओं का संचालन कराने वाली संस्था के संचालकों का कहना है कि ये ट्रैकिंग रूट अभी ट्रैकर्स की नजरों से दूर हैं। ये नए ट्रैकिंग रूट विदेशी सैलानियों को सबसे ज्यादा आकर्षित करेंगे। सैलानियों के आने से स्थानीय ग्रामीणों की आजीविका में सुधार होगा।
मुन्स्यारी की खूबसूरती को बढ़ाती पंचाचुली की चोटियां उसके लिए एक वरदान जैसी हैं। बागेश्वर से आते हुए इन्हीं के दर्शन सबसे पहले होते हैं। इसके अलावा खूबसूरत जोहार वैली का द्वार भी यहीं से है।
मैं जोहार वैली जाना चाहता था, लेकिन उसके लिए दिन कम पड़ रहे थे। हमने पहले दिन खलिया टॉप का ट्रेक किया। जिस तरह मेरे दोस्त माही ने बताया था, मुझे लगा कि खलिया टॉप का ट्रेक आसान होगा। उसने कहा कि ये ट्रेक तो आसान है, एक दिन में ही अप–डाउन कर लेंगे।
लेकिन मुझे नहीं पता था कि वो अपने हिसाब से इसे आसान बता रहा था — हमारे हिसाब से नहीं।
उसे यहां ट्रेक करने की आदत थी, लेकिन देहरादून से आए हम लोगों को न तो ट्रेक की आदत थी और न ही ठंड की।


हमने घर से सुबह 8 बजे निकलना तय किया था, लेकिन ठंड ने हमें 9 बजे तक रोका।
उसके बाद भी हम बर्निया गांव से मुन्स्यारी तक साढ़े 9 बजे पहुंचे। वहां हमने पाइन वुड रेस्टोरेंट में चाय–नाश्ता किया क्योंकि वहां से व्यू बड़ा शानदार दिखता है।
यहां भी हमने एक घंटा बिताया और फिर 11 बजे तक हम खलिया द्वार पहुंचे, जहां से खलिया टॉप शुरू होता है।

इस तरह हमने 11 बजे अपना खलिया टॉप का ट्रेक शुरू किया।
ट्रेक पर बात करने से पहले मैं उस रास्ते के बारे में बता देता हूँ जिसके बारे में मैंने अभी बताया।
मुन्स्यारी से बर्निया गांव की दूरी करीब साढ़े 6 किलोमीटर के आसपास है। क्योंकि रास्ता खराब है, इसीलिए गांव तक पहुंचने में 20–22 मिनट लग जाते हैं।
इसी तरह मुन्स्यारी से खलिया द्वार तक की दूरी करीब 10 किलोमीटर है, लेकिन रास्ता ठीक है तो यहां भी 22–25 मिनट लग जाते हैं।
इसलिए साथ में एक रेंटेड बाइक या स्कूटी होना जरूरी रहता है।

अब बात ट्रेक की करते हैं — 11 बजे शुरू हुए खलिया टॉप के आधे रास्ते, यानी बेस कैंप तक, पहुंचने में ही हमने 2 घंटे से ज्यादा लगा दिए।
दरअसल शुरुआत तो हमने जोश के साथ की थी, लेकिन 10 मिनट बाद ही सांस फूलने लगी।
न हमें ट्रेक करने की ट्रिक पता थी और न ही ट्रेक करने की आदत।
हम थोड़ा चढ़कर थोड़ा आराम करते — इस वजह से इतना टाइम लगा।
कुछ टाइम इस वजह से भी लगा कि हम फोटो और वीडियो बनाते हुए चल रहे थे।

बेस कैंप से पहले ही पंचाचुली का एक शानदार व्यू प्वाइंट आता है।
ये व्यू प्वाइंट इतना खूबसूरत होता है कि ऊपर जाने की भूख और बढ़ जाती है। दिमाग में चलता है कि अगर पंचाचुली यहां से इतना बड़ा और खूबसूरत लग रहा है, तो पता नहीं ऊपर से कितना मनमोहक दिखेगा।
बेस कैंप पहुंचे तो देखा कि यहां टेंट और खाने–पीने की व्यवस्था थी। यहां आप रात को स्टे भी कर सकते हैं।
इससे ऊपर का रास्ता उतना ही था जितना नीचे से बेस कैंप तक का था।

हमने कुछ देर यहां फोटो खिंचवाकर पानी भरा और ऊपर की चढ़ाई चढ़ना शुरू किया।
करीब सवा एक बजे हम बेस कैंप पहुंचे थे और यहां से 2 बजे ऊपर का सफर शुरू किया।
यहां से ऊपर चढ़े तो फोटो–वीडियो बनाते हुए सिर्फ 1 घंटे का सफर और तय किया और एक सुंदर सी धार पर हमने रुकने का फैसला किया, क्योंकि 3 बज चुके थे।
हमने मैगी भी बनानी थी और फिर अंधेरा होने से पहले नीचे भी उतरना था।

यहां जीरो प्वाइंट — यानी खलिया की चोटी — की दूरी अभी भी 1 से डेढ़ घंटे की दूरी पर थी।
और क्योंकि जिस जगह हम रुके थे, वो भी इतनी खूबसूरत थी कि मानो दिल भर गया हो।
हालांकि इससे भी ऊपर जाते तो शायद और शानदार नजारे दिखते, लेकिन बैठकर मैगी खाते–खाते इंजॉय भी करना था।
इसलिए हमने उसी जगह रहकर खूब फोटो खिंचवाई और खूब सारी बातें कीं।

माही के साथ मुन्स्यारी के ही दो और दोस्त — ईश्वर भाई और हीरा भाई — हमारे साथ थे।
इन्होंने खलिया और मुन्स्यारी को लेकर कई बातें हमें बताईं — जैसे पूरा खलिया टॉप का जंगल नंदा देवी को समर्पित है, इसलिए यहां कोई भी पेड़ काटने का मतलब नंदा देवी को नाराज करना।
पहले ये जगह कॉमर्शियल नहीं थी, यानी कि पहले ट्रेक के लिए 50 रुपये का टिकट नहीं लगता था, लेकिन वक्त के साथ और टूरिस्ट के बीच लोकप्रिय होने की वजह से टिकट शुरू किया गया।
इसके साथ ही वो हमें ट्रेक करने के टिप्स भी दे रहे थे — जैसे फ्लो में छोटे–छोटे कदम रखने हैं, बड़े–बड़े कदम रखकर थकान ज्यादा लगती है।
हमने मैगी बनाते हुए खूब सारी बातें कीं और पंचाचुली के उसकी ही सीध में आकर दर्शन किए।
हम एक तरह से पंचाचुली पर्वत को आंखों में आंखें डालकर देख रहे थे।
हालांकि बादलों ने आकर मजा कुछ किरकिरा किया, लेकिन पंचाचुली फिर भी मनमोहक और विशाल लग रहा था।

अपने दोस्तों के साथ खलिया पर्वत पर खड़े होकर इस विशालकाय चोटी को निहारते हुए सच में लग रहा था कि मुन्स्यारी सच में यारों का इलाका है।

करीब 3 बजे हमने मैगी–चाय बनाने का काम शुरू किया और 5 बजे तक उसका आनंद लिया और खूब सारी बातें कीं।
फिर फर्राटे में नीचे उतरने लगे क्योंकि अंधेरा 6 बजे से पहले ही हो जाता है।
और हुआ भी ऐसा ही — हम लगातार चलते रहे बिना रुके, क्योंकि अंधेरा होना शुरू हो चुका था।
डर और ठंड के बीच हम अंधेरे में चलते रहे।
ज्योति का डर कुछ ऐसा था कि पैर में भयंकर दर्द और जोर पड़ने के बावजूद वो चलती रही, क्योंकि हमने भालू के हमले का मज़ाक भी कर लिया था।
हालांकि पहाड़ों में भालू के हमले आम होते हैं, लेकिन खलिया में भालू का कोई हमला लंबे समय से नहीं देखा गया है।
लेकिन एक मजाक की वजह से वो बिना रुके चलती रहीं — जिसका असर उसे बाद में देखने को मिला। पैर मुड़ने तक मुश्किल हो गए थे।
मैं भी चल रहा था। पैरों में दर्द हो रहा था, थोड़ा–थोड़ा रुककर लगातार धीरे–धीरे चल रहा था, क्योंकि नीचे उतरते वक्त पैरों पर जोर ज्यादा पड़ता है, खासकर घुटनों पर।
करीब साढ़े 6 बजे हम खलिया द्वार पहुंचे।
कुछ सुस्ताकर वहां से सीधा बर्निया गांव पहुंचे।
माही ने घर में स्वादिष्ट खाना खिलाया और फिर थके–हारे हम सब सो गए।
चुलकोट से लेकर नेपाल तक की आगे की कहानी

मुंस्यारी उत्तराखंड के उन पर्यटक स्थलों में से है जिसे उतनी पहचान नहीं मिल पाई है। लेकिन थैंक्स टू सोशल मीडिया कि उत्तराखंड के इस सुदूरवर्ती पर्यटक स्थल की सुंदरता लोगों तक पहुंच रही है। मैंने भी 21 नवंबर को देहरादून से मुंस्यारी के लिए अपना सफर शुरू किया था। यहां पहुंचने में मुझे 2 दिन लगे और 23 तारीख को मैंने खलिया टॉप का ट्रैक किया।
24 नवंबर को वैसे तो हमारा जौलजीबी और धारचूला जाने का प्लान था, लेकिन उसमें बदलाव हो गया क्योंकि माही के घर पर पूजा थी और बकरा कटने वाला था। इसलिए हमने डिसाइड किया कि इस दिन मैं मुंस्यारी ही घूम लूंगा और पूजा का मटन भी खा लूंगा।
चौथे दिन मुंस्यारी का म्यूजियम और नंदा देवी मंदिर

24 तारीख को सुबह 8 बजे मैं माही के घर की छत पर गया और वहां से पूरे गांव को निहारा। नरम–नरम धूप सेकते हुए पंचाचुली की चोटी को देख रहा था। बर्निया गांव गहराई में है, लेकिन यहां से पंचाचुली की चोटी दिख जाती है। सुबह-सुबह गांव खाली सा दिख रहा था; लोग या तो अपने काम पर निकल चुके थे या शायद गांव में वैसे भी ज्यादा लोग नहीं हैं।
धूप थोड़ा और तेज हुई तो मैंने पेड़ से तोड़े हुए माल्टे भी खाए। मैंने ईश्वर भाई से पूछा कि यहां और क्या-क्या फल होते हैं। उन्होंने बताया कि प्लम और आड़ू जैसे फल भी होते हैं। वैसे मुंस्यारी का राजमा तो फेमस है ही।
दोपहर हो चुकी थी। माही, हीरा भाई और माही का पूरा परिवार पूजा के लिए मंदिर चला गया था। हम भी करीब 1 बजे ईश्वर भाई के साथ मुंस्यारी के म्यूजियम और नंदा देवी मंदिर के लिए घर से निकले। लेकिन रास्ते में जहां माही और अन्य लोग पूजा कर रहे थे, हम वहीं पहले पहुंच गए। माही ने हमें टीका लगाया और प्रसाद भी दिया। कुछ देर वहां रुकने के बाद हम म्यूजियम के लिए निकल पड़े।

कुमाऊं और मुंस्यारी की परंपराओं और कलाकृतियों को संजोए यह म्यूजियम एक पुरानी बिल्डिंग में बना है। 30 रुपये देकर आप जोहार वैली में बसे इस कस्बे से जुड़े इतिहास को महसूस कर सकते हैं। यहां फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी करना मना है, हालांकि हमने चुपके से कुछ तस्वीरें जरूर खींचीं, जो देखने लायक थीं।

यहां आपको पुराने जमाने में इस्तेमाल की जाने वाली लगभग हर चीज दिखाई देगी, जिन्हें देखकर आपको इस घाटी के स्वर्णिम इतिहास की झलक जरूर मिलती है — कीड़ा जड़ी से लेकर लोकल दालें और खाना, आटा चक्की, टोकरियां, और वाद्य यंत्र तक। इस म्यूजियम की स्थापना डॉ. शेर सिंह पांगती ने की थी, उनका फोटो भी यहां लगा है। घाटियों की तस्वीरें, जानवरों के शरीर से जुड़े अंग और गर्म पोशाकें यहां प्रदर्शित हैं। कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें देखकर मैं भी दंग रह गया।

यह म्यूजियम आपको सैकड़ों साल पीछे ले जाता है। यहां आकर कुछ वैसी ही फीलिंग आती है जैसे अपनी पुरानी अलमारी खोलने पर आती है — मां-बाप की पुरानी चीजें देखकर जो अपनापन और इतिहास दोनों महसूस होते हैं, ठीक वही एहसास यहां होता है। म्यूजियम भी एक पुराने मकान में बना है, जिसकी बनावट अपने आप में पुराने दौर की भावना को जगा देती है।


हम यहां से करीब ढाई बजे निकले और मुंस्यारी बाजार से होते हुए नंदा देवी मंदिर पहुंचे। बाजार का रास्ता काफी संकरा और चढ़ाई वाला था, जिसे पार करने में थोड़ी मुश्किल हुई। हालांकि नंदा देवी मंदिर तक का रास्ता ठीक था। सड़क से थोड़ा ऊपर नंदा देवी मंदिर का एक बड़ा हिस्सा पार्क के रूप में विकसित किया गया है। ईश्वर भाई ने बताया कि पापड़ी गांव के देव सिंह पापड़ा जी ने इस इलाके को पार्क के रूप में विकसित कराया ताकि पर्यटक यहां आ सकें। कई लोगों ने पार्क के लिए अपनी जमीन भी दान की। 30 रुपये के टिकट के साथ आप यहां प्रवेश कर सकते हैं।


बच्चों के लिए यहां स्लाइड्स, झूले और काफी सुविधाएं हैं। सेल्फी प्वाइंट और कुमाऊं की संस्कृति की झलक भी दिखाई देती है। पार्क से पंचाचुली की चोटियां शानदार दिखती हैं। हमने यहां काफी देर फोटो और वीडियो बनाए। करीब सवा चार बजे तक रुककर हम घर की ओर निकले।


घर पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था। करीब पौने सात बजे हमने खाना खाया। ठंड थी, इसलिए माही के पापा ने हीटर भी लगा दिया। मेरे लिए मटन बनाया गया। ज्योति क्योंकि शाकाहारी है इसलिए उसके लिए हरी सब्जी बनी थी। मैंने स्वादिष्ट मटन खाया — भात और मटन एक साथ खाकर ऐसा मजा आया मानों मैं कब से भूखा था। भर पेट भुक्कड़ों की तरह खाना खाया, और ऐसा लगा जैसे हलक तक खाना भर गया हो। इसके बाद मुझे इतनी नींद आई कि मैं सीधा सोने चला गया।
पांचवा दिन धारचुला, जौलजीबी और नेपाल यात्रा

25 नवंबर को सुबह करीब साढ़े 8 बजे हम धारचूला के लिए निकले। प्लान था धारचूला से नेपाल जाना, वहां कुछ देर घूमना, फिर जौलजीबी आना और वहां का मेला देखना तथा उसके बाद चुलकोट के लिए निकल जाना जहां हमने कैंपिंग करनी थी। प्लान के मुताबिक अंधेरा होने से पहले हमें चुलकोट पहुंचना था क्योंकि चुलकोट का रास्ता काफी चढ़ाई वाला और खराब है। मुझे ऐसे रास्तों पर रात में गाड़ी चलाने का अनुभव नहीं था, इसलिए हम अंधेरा अवॉयड कर रहे थे।
रूट थोड़ा बताता हूं — बर्निया गांव से जौलजीबी 68 किलोमीटर है, लेकिन रास्ता ऐसा कि यहां पहुंचने में ढाई घंटे से ज्यादा लगते हैं। जौलजीबी से धारचूला करीब 30 किलोमीटर है जहां एक घंटा लगता है।
मतलब बर्निया गांव से हमें पहले करीब 100 किलोमीटर जाना था और फिर धारचूला से करीब 75 किलोमीटर दूर चुलकोट पहुंचना था, वह भी अंधेरा होने से पहले।
हम सुबह पौने 9 बजे बर्निया गांव से निकले। अनजान रास्तों पर गाड़ी चलाते हुए मुझे पहाड़ों की असली चुनौती का अहसास हुआ। संकरी सड़कें और खराब रास्ते मुझे सड़क पर फोकस रखने के लिए मजबूर कर रहे थे। दिमाग में चल रहा था कि रात को मैं कैसे इन रास्तों पर गाड़ी चलाऊंगा। हालांकि गाड़ी चलाना आसान होता है, बस रात को ऐसे संकरे रास्तों पर भारी वाहनों को पास देना मुश्किल होता है।

सुबह पौने नौ बजे शुरू हुआ सफर करीब 32 किलोमीटर आगे 10 बजे मतकोट के पास एक गर्म कुंड पर रुका। वहां हमने चाय-नाश्ता किया। मतकोट पास यह सेरा — यानी नदी किनारे एक समतल घाटी — बेहद सुंदर और शांत है। यहां गोरी गंगा के किनारे जमीन के नीचे से गर्म पानी आता है जहां लोग नहाने पहुंचते हैं। एक गर्म कुंड मतकोट से पहले भी था जहां भीड़ ज्यादा रहती है, जिसे ‘गंदब’ कहते हैं। हमें देर हो रही थी इसलिए हम नहाने नहीं गए और सच कहूं तो पानी से थोड़ी दुर्गंध भी आ रही थी जो मुझे पसंद नहीं आई।
हम यहां से चाय-नाश्ता करके साढ़े दस बजे के बाद रवाना हुए और सीधा 1 बजे धारचूला पहुंचे। हम उस पुल पर गए जो भारत और नेपाल को जोड़ता है। पुल पर भारतीय जवान तैनात रहते हैं जो वहां से आने-जाने वालों की एंट्री करते हैं। आधार कार्ड दिखाकर आप नेपाल जा सकते हैं। हमने भी अपने-अपने आधार कार्ड दिखाए और पुल पार किया। ज्योति का आधार कार्ड कार पर ही रह गया था, लेकिन उसके पासपोर्ट की फोटो मंगवाई और वह दिखाकर उसे जाने दिया गया।


मैं पहली बार नेपाल जा रहा था। भारत में जिस धारचूला से हमने नेपाल में एंट्री ली वह पुल पार करते ही नेपाल में ‘दारचुला’ बन जाता है। मेरे लिए वहां रेस्टोरेंट में खुले आम शराब की बोतलें देखना बिल्कुल नया था। लोग होटल में बैठकर खुलकर शराब पी रहे थे। बाकी लगभग सबकुछ भारत जैसा ही था। हिंदी में बोर्ड, हिंदी गाने, यहां तक कि भारतीय करेंसी भी चल रही थी।
हम गली में दूर तक गए, लेकिन कुछ खास नया नहीं दिखा। हां, भारत की तुलना में सरकारी इमारतें ज्यादा जर्जर दिखीं। हमने एक रेस्टोरेंट में मोमोज और चाउमीन खाई, सोचकर कि नेपाली लोग अच्छा बनाते होंगे। लेकिन जो मोमोज और चाउमीन हमने खाई, उससे बेहतर तो हम भारत में खा लेते। भारत-नेपाल के उस इलाके में वैसे भी बहुत कम अंतर है; लोग लगातार आते-जाते रहते हैं।


हमने नेपाल में करीब एक घंटा 40 मिनट बिताने के बाद वतन वापसी की। धारचूला से हम सवा तीन बजे निकले और पौने चार बजे जौलजीबी मेले पर पहुंच गए। मेले से पहले हमने जौलजीबी का भारत-नेपाल को जोड़ने वाला पुल देखने का सोचा। यह पुल धारचूला वाले पुल से ज्यादा ऊंचा और लंबा था — देखने में सुंदर और थोड़ा डरावना भी। यहां आकर सच में लगा कि हम किसी अच्छी जगह पहुंचे हैं। लोगों की भीड़ पुल पर फोटो खिंचवाने में लगी हुई थी। हमने भी पुल पर खूब तस्वीरें खींचीं और फिर मेला देखने पहुंचे।

मेले में काफी सारे स्टॉल थे — सस्ते-महंगे हर तरह के कपड़े और सामान। लोगों की भारी भीड़ थी। मुझे मेला ज्यादा पसंद नहीं आया, हालांकि पुल से देखने पर मेला आकर्षक लग रहा था। लेकिन मेले में घूमकर ऐसा लग रहा था मानों देहरादून के संडे मार्केट में घूम रहे हों, इसलिए मैं ज्यादा नहीं घूमा।
ज्योति घूम रही थी, लेकिन अंधेरा होने लगा था। छोटे दिन थे, तो 5 बजे ही अंधेरा हो गया। हम पौने 6 बजे वहां से निकले और अंधेरे में चुलकोट की ओर बढ़ गए। यहां से चुलकोट धार करीब 40 किलोमीटर दूर था।
मैं अंधेरे में इस आस में गाड़ी चला रहा था कि सामने से कोई बड़ी गाड़ी न आ जाए। मतकोट तक तो रास्ता ठीक लग रहा था, लेकिन मतकोट के बाद चुलकोट जाने वाला संकरा रास्ता देखकर मेरा डर और बढ़ गया। करीब साढ़े सात बजे तक हम मतकोट में थे। यहां से चढ़ाई और भी ज्यादा संकरी और खतरनाक हो जाती है, दोनों तरफ गहरी खाई। मैं बस यही दुआ कर रहा था कि कोई गाड़ी सामने से न आए — और किस्मत से रात के वक्त कोई गाड़ी उस रास्ते से नहीं आई।


हम किसी तरह साढ़े आठ बजे से पहले-पहले ऊपर वाले की कृपा से चुलकोट धार पहुंचे। वहां गाड़ी लगाकर कैंपिंग की तैयारी की। यहां एक छोटा सा होटल और कैंपिंग की जगह थी। होटल हीरा भाई का ही था, इस वजह से खाने और कैंपिंग की कोई दिक्कत नहीं हुई।
हमने टेंट लगाया, आग जलाई और जबरदस्त माहौल बनाया।

चुलकोट धार पर खड़े होकर जब मैंने आसमान को निहारा तो ऐसा लगा मानों मैं स्वर्ग में खड़ा हूं। आज तक मैंने इतना तारों भरा आसमान नहीं देखा था। पूरा का पूरा आसमान सितारों से सजा था। उन्हीं सितारों की छांव में हमने एक यादगार रात बिताई — बहुत सारी बातें, गाने, हंसी-ठहाके और ढेर सारी यादें।


शायद ये रात मेरी जिंदगी की ‘सबसे’ यादगार रात न हो, लेकिन मेरी जिंदगी की सबसे कीमती रात जरूर थी। चुलकोट की सर्दी और तारों की छाव में अपने सबसे करीबी लोगों के साथ यह रात कब बीत गई पता ही नहीं चला। मैं सो गया इस आस में कि कल एक और दिन है — हम इससे भी ऊपर जाएंगे, टेंट लगाएंगे और तारों की छांव में एक और शानदार रात बिताएंगे।
लेकिन फिर वही — जैसा हम सोचते हैं वैसा होता कहां है।
छठा दिन चुलकोट में ऐसे खत्म होगा सोचा नहीं था

26 नवंबर की सुबह चुलकोट की सर्दी में मेरी आंख खुली, बल्कि खुलवाई गई। टेंट के बाहर कुछ घंटियां बजने लगीं — कुछ पशु शायद पास आ गए थे। अच्छी बात ये थी कि टेंट के अंदर ठंड नहीं लगी।
सुबह उठकर मैं फ्रेश हुआ। बाथरूम वहां था, इसलिए कोई समस्या नहीं हुई। हां, ठंड जरूर थी। फ्रेश होने के बाद मैं चुलकोट के पहाड़ों की ओर दौड़ पड़ा।

रात के अंधेरे में माही बता रहा था की ऊंचाई से नजारा शान्दार रहता है, बस सुबह कुछ ऐसी ललक जागी की साधा चढ़ाई पर पहुंचा और चारों तरफ नजर दौड़ाई, और मैं दंग रह गया, नजरों ने कभी ऐसा मंजर देखा ही नहीं था, पीले पहाड़ और सामने पंचाचुली की चोटियां. जहां में खड़ा भी था वहां भी घास पर पड़ रही सूरज की रोशनी उसे और ज्यादा चमका रही थी, मेरे लिए ऐसा दृश्य सपने जैसा था, मैं कभी ऐसी जगह पर नहीं गया था, मुझे यहां की शांति से प्यार हो गया था, मैं यहां वहां अकेले ही दौड़ता रहा, कभी इधर देखता कभी उधर देखता, कभी शांत खड़ा होकर बस पहाड़ों में कुछ ढूंढने की कोशिश करता, एक पल तो ऐसा आया जब मैं ऊपर से नीचे खाई को देखते हुए शांत खड़ा होकर रो रहा था. मानो इस शांति की जरूरत मुझे पता नहीं कबसे थी.

मेरी आंखों से एक आंसू निकला और मैं ठहर गया, थोड़ा रुका और उस पीली घास में धूप सेकते हुए सीधा लेट गया और नीले आसमान को निहारने लगा, सबकुछ यकीन से परे था, आसमान को देखते हुए लग रहा था मानो में उसके कितने नजदीक हूं, नीला समंदर निहारते हुए मैं सुकुन के पलों में खो गया था.

फिर कुछ घंटियां सुनाई दीं , आस पास देखा को कई बैल और गाय घास चुग रही थीं. मैं उठा और उनसे बात करने लगा, जिस जगह से मैं इन जानवरों को घास खाता देख रहा था ये मुझे किसी फिल्म से कम नहीं लग रहा था, मेरे लिए मैं किसी फिल्म में था और ये मेरे लिए कोई दूसरी दुनिया, जहां एक खूबसूरत और विचित्र जगह पर कोई अनोखे जानवर देख रहा हूं.

शायद आपको ये सब सुनकर हंसी आ रही हो, लेकन यकीन मानो मेरी आंखे जिस नजर से इस पूरे नजारे को देख रही थीं वो किसी चित्र जैसा ही था. जो मेरे लिए बिल्कुल विचित्र ही था. मानों में किसी दूसरे गृह में हूं. मैने यहां वीडियो बनाए, फोटो खींचीं, और इधर उधर घूमां.

तब तक माही भी जाग गया था। हमने कुछ देर साथ में इस अद्भुत नजारे को निहारा। ज्योति भी उठ गई थी। वक्त धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। हीरा भाई के भाई अपने घर से नाश्ता लाए — मंडुवे की रोटी, घर का पीसा नमक और छाछ, जो हमने धूप में बैठकर खाया।

इसके बाद प्लान था कि दोपहर 2 बजे तक हम ट्रैक पर जाएंगे, जो चुलकोट से भी ऊपर था और वहां रात बिताएंगे। लेकिन 12 बजते-बजते हमने डिसाइड किया कि आज की रात भी यहीं बिताएंगे। अपना शूट करेंगे और फिर कल मुंस्यारी निकल जाएंगे।

दिन भर हमने बहुत सारी तस्वीरें और वीडियो बनाए। ज्योति को अपना शूट कराना था, इसलिए उसने साड़ी पहनकर भी कई तस्वीरें खिंचवाईं।
करीब 3 बजे हमें भूख लगी, तो हीरा भाई के होटल में खाने का सोचा। रात के चावल बचे थे, तो मेरे दिमाग में आया कि क्यों न चावल और मैगी मिलाकर खाएं। कुछ नया करते हैं।
ज्योति को यह आइडिया पसंद नहीं आया — उसने कहा कि वह अपनी मैगी अलग बनाएगी। हीरा भाई ने भी अपनी अलग मैगी बनाई। लेकिन मैंने और माही ने तय किया कि हम तो मैगी-भात का मिक्सचर ही खाएंगे।

सो हमने बनाना शुरू किया — प्रेशर कुकर में टमाटर, प्याज डालकर मैगी उबाली और फिर उसमें भात मिलाकर थोड़ा उबाला। दो अंडे डाले और तैयार हो गई हमारी ‘किलर’ मैगी-भात की खिचड़ी। हमने वह बड़े चाव से खाई — यकीन मानों इससे बेहतर लंच पहाड़ों की धूप में हो ही नहीं सकता।

खाने के बाद हम चुलकोट की दूसरी पहाड़ियों में घूमने निकले। बहुत खूबसूरत तस्वीरें खिंचवाईं। मेरी जिंदगी की कई बेहतरीन तस्वीरों में से कुछ मैंने यहीं लीं।

शाम होने लगी — साढ़े चार बजे ज्योति को फोन आया कि उसे कल देहरादून आना है। और हमें ना चाहते हुए भी डिसाइड करना पड़ा कि हम आज ही मुंस्यारी के लिए निकलेंगे, ताकि कल सुबह-सुबह देहरादून के लिए निकल सकें।

साढ़े पांच बजे तक हमने सामान पैक किया और चुलकोट से मुंस्यारी के लिए रवाना हुए। लगभग 25 किलोमीटर जाना था। पौने सात बजे दरांती के पास रुके और चाय-समोसे खाए। मैंने 3 समोसे खाए और माही ने 5। मुझे समोसे खाने के बाद लगा कि गलती कर दी — पेट दर्द होने लगा। लेकिन खा लिया था तो अब क्या।
मुंस्यारी बाजार पहुंचे। गाने बजाते, मस्ती करते करीब 9–9:30 बजे माही के घर पहुंच गए और देर तक बातें कीं। यह आखिरी रात थी, इसलिए देर तक जागे। अंत में नींद हावी हुई, लेकिन रात यादगार रही।

सुबह हम 8 बजे देहरादून के लिए निकले और कपकोट तक रुक-रुककर सफर का आनंद लेते हुए पहुंचे। कपकोट के आसपास हमने दिन का खाना पैक कराया — फ्राइड राइस और मंचूरियन। वहां एक पिज्जा भी खाया। फिर आगे निकले और बागेश्वर में गाड़ी लगाकर खाना खाया।
बागेश्वर के बाद मैंने तय किया कि आज ही सफर पूरा करना है। इसलिए बिना रुके आगे बढ़ा। ग्वालदम तक उजाला था। कर्णप्रयाग से कुछ किलोमीटर पहले अंधेरा हो गया। लेकिन सड़क चौड़ी थी और मैं यह रास्ता पहले देख चुका था, इसलिए बिना रुके चलता रहा।
फिर ऋषिकेश से पहले तीन धारा के पास साढ़े 9 बजे रुके। चाय पी और थोड़ा खाना पैक कराया ताकि नींद न आए। जहां थकान लगती, 5–10 मिनट के लिए गाड़ी साइड में लगाकर सुस्ता लेता।
पौने एक बजे ऋषिकेश पहुंचे और डेढ़ बजे रानीपोखरी। इस तरह 27 की देर रात या 28 तारीख कहें, मैं ढाई बजे के आस-पास अपने घर में था।
और मेरी यह 6–7 दिनों की ट्रिप खत्म हुई।
शुक्रिया।
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