गैरसैंण: एक अधूरी राजधानी का सपना
5410 फीट की ऊँचाई पर बसा गैरसैंण, मानो पहाड़ों की गोद में सजाया गया कोई अनमोल सपना हो। चारों ओर हरे-भरे जंगल, ठंडी हवाओं का स्पर्श और बादलों के बीच खड़ा विधानसभा भवन—यह महज एक इमारत नहीं, बल्कि उन सपनों का प्रतीक है, जिन्हें उत्तराखंड के लोगों ने अपने खून, पसीने और आंसुओं से गढ़ा।
1994 का आंदोलन, 45 शहीदों की कुर्बानी और अनगिनत उजड़ी मांओं की गोद के बाद उत्तराखंड राज्य तो बना, लेकिन राजधानी पहाड़ की धरती पर बसने का सपना अब भी अधूरा है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी का दर्जा मिला जरूर, पर यह सपना कागजों और अधूरे वादों तक ही सिमट कर रह गया।
आंदोलन से उम्मीद तक
1994 की सर्द सुबहें आज भी लोगों के दिलों में गूंजती हैं, जब राजधानी गैरसैंण बनाने की मांग ने आंदोलन का रूप लिया। पहाड़ से खाली होते गांव, रोज बढ़ता पलायन और आपदाओं का दर्द—हर सवाल का जवाब लोग गैरसैंण में तलाश रहे थे।
2000 में उत्तराखंड बना तो राजधानी मैदानों में, देहरादून में स्थापित हो गई। गैरसैंण का सपना ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। फिर 2014 में कांग्रेस सरकार ने गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर नई उम्मीद जगाई। विधानसभा भवन का निर्माण हुआ, गांव-गांव में विश्वास लौटा। लेकिन यह उम्मीद भी जल्द ही धुंधली हो गई।
अधूरी गूंज
गैरसैंण में पिछले 11 सालों में सिर्फ 10 सत्र हुए और कुल 35 दिन की कार्यवाही। 19 अगस्त 2025 को शुरू हुआ मानसून सत्र इसका सबसे कड़वा अध्याय बन गया। चार दिन का तय सत्र डेढ़ दिन में ही समाप्त। कांग्रेस विधायकों के हंगामे और धरने के बीच सदन स्थगित हो गया।
धाराली आपदा, बेरोजगारी, पलायन जैसे अहम मुद्दे उठ ही नहीं पाए। विपक्ष हंगामे में उलझा रहा और सत्ता पक्ष विधेयक पास करने की जल्दबाज़ी में। सवाल यह है कि पहाड़ की असल पीड़ा कौन सुनेगा?
राजनीति का खेल
गैरसैंण की राजनीति बार-बार दोहराई जाती है। कांग्रेस ने इसे राजधानी बनाकर वाहवाही लूटी, भाजपा ने चुनावी वादों में इसका इस्तेमाल किया। पर सत्ता में आने के बाद हर बार नजरें देहरादून की ओर ही टिक जाती हैं।
कांग्रेस शासन में सिर्फ 7 दिन की कार्यवाही, भाजपा में 28 दिन। धामी सरकार में अब तक दो सत्र, मात्र 7 दिन। करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, लेकिन नतीजा सिर्फ औपचारिकता। गैरसैंण नेताओं के लिए मानो एक तीर्थस्थल बन गया है—जहाँ हाजिरी देकर लौट आना है।
पहाड़ की पुकार
गैरसैंण का विधानसभा भवन ईंट और पत्थरों का ढांचा नहीं, बल्कि 1994 के शहीदों की कुर्बानी की याद है। यह उन मांओं की उम्मीद है जिनके बच्चे पलायन की मजबूरी में गांव छोड़ रहे हैं। यह उन गांवों की पुकार है जो सूने हो चुके हैं।
कांग्रेस नेता यशपाल आर्य इसे लोकतंत्र की हत्या कहते हैं, तो मुख्यमंत्री धामी विपक्ष पर नकारात्मक राजनीति का आरोप लगाते हैं। लेकिन जवाबदेही से दोनों ही बचते नज़र आते हैं।
अधूरी राजधानी, अधूरी कहानी
गैरसैंण को पूर्ण राजधानी बनाने की मांग आज भी जिंदा है। आंदोलनकारी, संगठन और विशेषज्ञ मानते हैं कि जब तक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई जाएगी, यह सपना अधूरा ही रहेगा।
विधानसभा भवन आज भी गर्व से खड़ा है, लेकिन उसकी खामोशी पहाड़ की पीड़ा को और गहरा करती है। 1994 के शहीदों की आत्माएँ जैसे अब भी सवाल पूछ रही हैं—क्या उनका सपना कभी पूरा होगा? क्या गैरसैंण सिर्फ प्रतीक रहेगा या सच में पहाड़ की राजधानी बनेगा?