अंकिता भंडारी हत्याकांड: न्याय या सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया का अंत ?- विकेश शाह
30 मई 2025 — लगभग 2 साल 8 महीने और 12 दिन तक चली सुनवाई के बाद और 3 वर्षों के लंबे इंतजार के पश्चात कोटद्वार की अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश श्रीमती रीना नेगी की अदालत ने अंकिता भंडारी हत्याकांड में अपना फैसला सुना दिया। अदालत ने तीनों आरोपियों को दोषी करार देते हुए उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। अब ये तीनों केवल आरोपी नहीं, बल्कि न्यायालय द्वारा घोषित हत्यारे हैं।
दोषियों के नाम और उनकी भूमिका
- पुलकित आर्य – मुख्य आरोपी, वनंतरा रिज़ॉर्ट का मालिक और अनैतिक गतिविधियों में लिप्त।
- सौरभ भास्कर – रिसॉर्ट का मैनेजर, आरोपी नंबर दो।
- अंकित गुप्ता – रिसॉर्ट कर्मचारी, आरोपी नंबर तीन।
इन सभी पर जितने भी आरोप और धाराएं लगाई गई थीं, उन सभी में उन्हें दोषी पाया गया है। विशेष रूप से पुलकित आर्य को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या), 201 (साक्ष्य छिपाना), 354A (छेड़खानी और लज्जा भंग करना) और अनैतिक देह व्यापार (Prevention of Immoral Trafficking Act) के तहत दोषी पाया गया है। सौरभ भास्कर और अंकित गुप्ता को धारा 302, 201 और अनैतिक देह व्यापार अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया है।
अदालत ने तीनों पर 72-72 हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया है और साथ ही अंकिता के परिवार को चार लाख रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया है।
मृत्युदंड नहीं मिलने पर उठते सवाल
फैसले के बाद यह बहस तेज़ हो गई है कि आखिर इतने जघन्य अपराध के बावजूद दोषियों को मृत्युदंड क्यों नहीं दिया गया। अंकिता की मां ने कहा कि उन्हें कुछ हद तक सुकून अवश्य मिला है, लेकिन जब तक इन तीनों को फांसी नहीं दी जाती, तब तक उन्हें पूरी तरह से संतुष्टि नहीं मिल सकती।
कुछ लोग इस निर्णय को न्याय की दृष्टि से पर्याप्त मानते हैं — उनका मानना है कि उम्रकैद एक सख्त सज़ा है और दोषियों को अब जीवनभर जेल में ही रहना होगा। परंतु, यह भी सच है कि किसी की मृत्यु के बाद न्याय शब्द का अर्थ ही खो जाता है। फांसी की सज़ा भी अंकिता को जीवन में वापस नहीं ला सकती। इसलिए इसे पूर्ण न्याय कहना संभवतः हमारी भावनात्मक भूल हो सकती है।
क्या यह सजा अपराधियों के लिए है या पीड़ित के परिजनों के लिए?
यहां सवाल न्याय का नहीं, सजा की प्रकृति और उसकी वास्तविकता का है। अदालत ने तीनों को आजीवन कारावास की सज़ा दी है, लेकिन जिन हालातों में इन अपराधियों को देखा गया है, उससे ऐसा नहीं लगता कि वे कोई सजा भुगत रहे हैं।
दोषी सौरभ भास्कर — जिस पर अंकिता की हत्या और उसे देह व्यापार के लिए वीआईपी के सामने प्रस्तुत करने का आरोप है — जब कोर्ट से बाहर आया, तो वह एक फैशनेबल दाढ़ी, ब्रांडेड टोपी, चेहरे पर मुस्कान और सेलिब्रिटी जैसा आत्मविश्वास लिए नजर आया। वह भीड़ और पुलिस के बीच हाथ हिलाते हुए पुलिस की गाड़ी में बैठा।
इसी प्रकार, पुलकित आर्य जब-जब कोर्ट में पेश हुआ, तो चमकदार कपड़े, सूटकेस और बेफिक्री के भाव के साथ आया करता था। क्या ऐसे व्यवहार को देखकर कोई कह सकता है कि ये लोग सजा भुगत रहे हैं? असली सज़ा तो अंकिता के माता-पिता झेल रहे हैं — जिन्होंने अपनी बेटी खोई, और फिर राजनीतिक दबावों के बावजूद न्याय के लिए संघर्ष किया।
फांसी की राह लंबी और टेढ़ी
अब अंकिता की मां ने स्पष्ट किया है कि वे हाई कोर्ट में फांसी की मांग के लिए अपील करेंगी। लेकिन ये राह आसान नहीं है। भारत में मृत्युदंड एक जटिल और लंबी कानूनी प्रक्रिया है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, आज़ादी के बाद अब तक मात्र 60 लोगों को फांसी दी गई है। वहीं, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के अनुसार यह आंकड़ा 176 है।
ट्रायल कोर्ट्स हर साल औसतन 130 लोगों को फांसी की सज़ा सुनाते हैं, परंतु वास्तव में इनमें से 90% से अधिक को राहत मिल जाती है। वर्ष 2000 से 2022 तक, ट्रायल कोर्ट्स ने 2045 लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई, लेकिन इनमें से सिर्फ 8 लोगों को ही फांसी दी गई। 454 दोषी तो अंततः रिहा हो गए।
इसलिए अगर अंकिता का परिवार हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट तक भी जाए, तो भी इन अपराधियों को वास्तव में फांसी मिलने में कई साल लग सकते हैं। NLU की रिपोर्ट बताती है कि फांसी की प्रक्रिया औसतन 20–22 वर्षों तक खिंचती है।
क्या सज़ा का स्वरूप सही है?
सच्चा दंड तभी माना जाएगा जब दोषियों के चेहरे पर पश्चाताप और भय का भाव दिखे। आज वे आत्मविश्वास के साथ, हंसते हुए दिखाई देते हैं जबकि अंकिता का परिवार दुख, थकान और मायूसी से भरा हुआ है। इस स्थिति में न्याय की परिभाषा पर फिर से विचार करना आवश्यक हो गया है।
इसके अतिरिक्त, अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि वे वीआईपी कौन थे जिनके लिए “एक्स्ट्रा सर्विस” की बात की गई थी। जब अदालत ने अनैतिक देह व्यापार अधिनियम के तहत सज़ा दी है, तो यह आवश्यक है कि इस धंधे में शामिल सभी चेहरों को सामने लाया जाए।
निष्कर्ष
अंकिता भंडारी की हत्या ने उत्तराखंड जैसे शांत माने जाने वाले राज्य में व्याप्त काले सच को उजागर किया है। जब तक इस पूरे प्रकरण में शामिल हर व्यक्ति — चाहे वह जितना भी शक्तिशाली क्यों न हो — सामने नहीं आ जाता, तब तक न्याय अधूरा रहेगा।
यह सिर्फ एक कानूनी फैसला नहीं, बल्कि एक सामाजिक चेतना का विषय है। हमें इंसाफ की परिभाषा को केवल कानूनी दायरे में नहीं, नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण से भी परिभाषित करने की ज़रूरत है।
आपकी राय क्या है? क्या इस फैसले से आपको लगता है कि न्याय हुआ है? अपने विचार साझा करें।