मंदिर नहीं तीन मंजिले घर में निवास करती है सिद्धपीठ राजराजेश्वरी देवी – TEMPLE OF MAA RAJRAJESHWARI DEVI
टिहरी: चैत्र नवरात्रि का पर्व हिंदू धर्म में बेहद खास और पवित्र त्योहार होता है. इस दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों की विधि-विधान से पूजा की जाती है. उत्तराखंड में देवी के मंदिरों में भारी भीड़ उमड़ रही है. खास बात है कि उत्तराखंड में देवी के कई शक्तिपीठ और सिद्धपीठ हैं. उनमें से एक सिद्धपीठ राजराजेश्वरी देवी का स्थल टिहरी गढ़वाल के देवलगढ़ में स्थित है. खास बात है कि यहां देवी मंदिर में नहीं बल्कि तीन मंजिला भवन में निवास करती है.
श्रीनगर गढ़वाल के पास देवलगढ़ में एक सिद्धपीठ राजराजेश्वरी देवी का स्थल है. जो गढ़वाल राजवंश और उनसे संबंधित लोगों की कुलदेवी है. देवी यहां तीन मंजिला घर में निवास करती है. इस देवी के स्थल पर 10 सितंबर 1981 से अखंड ज्योत जलती आ रही है. मां राजराजेश्वरी को मोक्ष, वैभव, धन और योग की देवी कहा जाता है. यहां आज भी मूल स्थान पर उन्नत श्रीयंत्र विद्यमान है.
प्राचीन सिद्धपीठ राजराजेश्वरी मंदिर में अमावस की रात को विशेष हवन के साथ परंपरानुसार नवरात्रि पूजा प्रारंभ हो चुकी है. मंदिर के पुजारी कुंजिका प्रसाद उनियाल ने बताया कि नवरात्रि के पहले दिन शुभ घड़ी में मां राजराजेश्वरी, महिषासुर मर्दिनी और त्रिपुर सुंदरी की डोलियों को उन्नत श्रीयंत्र, महिषमर्दनी यंत्र और कामेश्वरी यंत्र विशेष श्रृंगार के साथ तीन मंजिला भवन के दूसरे मंजिल के विशेष कक्ष में विराजमान किया गया.
इसके बाद यहां 10 महाविद्याओं के नाम से हरियाली बोई जाती है. परंपानुसार देवी भगवती को नए झंडे चढ़ाए जाते हैं. जौ की हरियाली को प्रकृति स्वरूपा महामाया मानते हुए पूजन किया जाता है. नवरात्रि के समय दिन के साथ हर रात मंदिर प्रांगण में हवन किया जाता है. मंदिर के पुजारी के मुताबिक, विजयादशमी के दिन देवी को ऊपरी मंजिल के विशेष कक्ष में स्थापित करने और यज्ञ के बाद दस महाविद्याओं के नाम की हरियाली को प्रसाद स्वरूप बांटने की प्राचीन परंपरा आज भी यथावत है.
यह है मान्यता: बताया जाता है कि सन 1948 तक नवरात्रि की विशेष पूजा और अनुष्ठान की सारी व्यवस्थाएं नौटियाल राजगुरु करते थे. कोठी के अंदर की पूजा में पोखरी के बहुगुणा, मासों के डंगवाल ज्योतिषाचार्यों व श्रीविद्या उपासकों का बड़ा योगदान रहता था. 1949 में टिहरी के भारत सरकार में विलीनीकरण के बाद प्रत्येक वर्ष होने वाली महापूजा की परंपरा समाप्त होने लगी. जिसके कारण कई पंडित और यजमान परिवार सिद्धपीठ से दूर हो गए. तब उनियाल पुजारी परिवार ने विशेष पूजा परंपरा को यथावत बनाए रखा गया.
ऐसे पहुंचे मंदिर तक: सिद्धपीठ राजराजेश्वरी मंदिर श्रीनगर से 18 किमी की दूरी पर देवलगढ़ में स्थित है. देवलगढ़ तक निजी या सवारी वाहन से पहुंचा जा सकता है. इसके बाद सड़क से तकरीबन 250 मीटर की चढ़ाई चढ़ने पर राजराजेश्वरी मंदिर मौजूद है. राजराजेश्वरी मंदिर से पूर्व गौरा देवी मंदिर के दर्शन भी भक्तों को होते हैं. यहां अन्य कई छोटे-बड़े मंदिर देखने को मिलते हैं.
विदेशों में भी प्रसाद की डिमांड: पंडित कुंजिका प्रसाद उनियाल बताते हैं कि पोस्ट ऑफिस के जरिए हवन-यज्ञ की भभूत (राख) विदेशों में भेजी जाती है. कहा कि जब विदेशों से लोग गांव आते हैं तो मंदिर के दर्शनों के लिए जरूर पहुंचते हैं. मंदिर में पहुंचने के बाद लोग भभूत अपने साथ ले जाते हैं. उन्होंने कहा कि क्षेत्र के कई लोग सऊदी अरब, ऑस्टेलिया, लंदन, अमेरिका में हैं. जो पोस्ट ऑफिस के जरिए राजराजेश्वरी मंदिर के हवन की भभूत मंगवाते हैं.
मंदिर के पुजारी कुंजिका कहते हैं कि गढ़वाल नरेश रहे अजयपाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी परिवर्तन कर देवलगढ़ को राजधानी बनाया था. तब चांदपुर से श्रीयंत्र लाकर तिमंजिला भवन बनाकर उसमें श्रीयंत्र, श्री महिषमर्दिनी यंत्र एवं कामेश्वरी यंत्र की राजराजेश्वरी मंदिर की सन 1512 में स्थापना की थी.
राजराजेश्वरी मंदिर की प्रमुख विशेषता: प्राचीन 52 गढ़ों में प्रमुख गढ़ देवलगढ़ की ऊंची पहाड़ी पर स्थित श्री राजराजेश्वरी सिद्धपीठ की पहचान उत्तराखंड के जागृत सिद्धपीठ के रूप में है. उनियाल बताते हैं कि एक से पांच वर्ष तक राजराजेश्वरी बाला सुंदरी या बालात्रिपुर सुंदरी हैं. उसके बाद 15 साल तक नन्दादेवी पर विशेष ‘राजराजेश्वरी. लेकिन जब 16 साल की होती हैं तो उसे षोढ़षी या संपूर्ण राजराजेश्वरी कहा गया है. नवरात्र में पूजा का यहां विशेष महत्व है.