आप सभी के रोंगटे खड़ी कर देगी ये कहानी, देखिए वीडियो
पौड़ी की रहने वाली एक 15 साल की लड़की अपनी माँ से कहती है की माँ मुझे मेला देखने जाना है। बेटी की जिद्द को देखकर माँ कहती है की क्या तुम्हे अपने पिता की मौत का बदला नहीं लेना अगर तुम कहीं जाना चाहती हो तो वह युद्ध का मैदान होना चाहिए। माँ का दिया हुआ ये तना उस लड़की के दिल में इस कदर बैठ जाता है की वो लड़की महज 15 साल की उम्र में हथियार उठा लेती है और रणभूमि में उतर जाती है । दोस्तों में बात कर रहा हूँ उत्तराखंड की वीरांगना तीलू रौतेली के बारे में। आखिर कैसे एक लड़की इतनी काम उम्र में अपनी शौर्यगाथा और व्यक्तित्व का एक ऐसा चाप छोड़ जाती है की उत्तराखंड में आज उनके नाम पर पुरस्कार दिए जाते हैं। आइये इस वीडियो में इनकी पूरी कहानी जानते हैं।

इस कहानी की शुरुवात होती है 17 वी सदी से जब उत्तराखंड पर कत्यूरी साम्राज्य लगभग ख़तम हो चूका था। लेकिन इसके बावजूद भी कुमाऊँ के कत्यूरी सैनिक आये दिन गढ़वाल साम्राज्य पर हमला करते रहते थे। धीरे धीरे कुमाऊँ में चाँद राजवंश अधिक शक्तिशाली होता गया और कत्यूरी साम्राज्य कमजोर पड़ता गया। अपनी घटते साम्राज्य को देखकर कत्यूरी साम्राज्य के वंशज शहर में लूटपाट और तबाही मचने लगे थे। इसी दौर में 8 अगस्त 1661 को पौड़ी के गुराड़ तल्ला गाँव के एक गढ़वाली राजपूत परिवार में एक लड़की का जन्म होता है। इनका नाम तिलोत्तमा देवी रखा जाता है जो की आगे चलकर तिलु रौतेली के नाम से प्रसिद्ध हुयी। तिलु रौतेली के पिता का नाम भूप सिंह गोर्ला था जो अपने वीरता के लिए जाने जाते थे और गढ़वाल के राजा फतेहशाह ने उनकी इसी बहादुरी के चलते उन्हें चौंदकोट परगने की थोकदारी सौंपी तीलू के आलावा भूप सिंह के दो बेटे भी थे जिनका नाम था भगतु और पथ्वा था और ये दोनों भी अपने सहस का लोहा मनवा चुके थे।अपने भाइयों के साथ ही तिलु रौतेली ने काम उम्र में ही तलवारबाजी और घुड़सवारी सीखना शुरू कर दिया था। … तिलु रौतेली के गुरु शिवदत्त पोखरियाल ने तीलू को इन विधाओं में निपुण बना दिया था। इसी दौरान तीलू की सगाई इड़ा गाँव के थोकदार के बेटे भवानी नेगी से करवा दी गयी थी। किन्तु शादी के कुछ समय पहले ही युद्ध के मैदान में तीलू के मंगेतर शहीद हो गए।. उत्तराखंड में उन दिनों पंवार और चंद राजवंश का शासन हुआ करता था। किन्तु कमजोर पड़ चुके कत्यूरी उत्तराखंड में जगह जगह हमला कर अपना साम्राज्य स्थापित करने में लगे हुए थे। कत्यूरी राजा धमशाही ने गढ़वाल और कुमाऊँ के सीमान्त क्षेत्र खैरागढ़ में हमला कर दिया और वह पे अपना अधिकार जमा लिया। अपने क्षेत्र को कत्यूरी राजा से बचने के लिए गढ़वाल नरेश ने धमशाही पर हमला किया किन्तु उन्हें हार का सामना करना पड़ा। गढ़वाल नरेश ने इस इलाके की जिम्मेदारी भूप सिंह और उनके बहादुर बेटों को सौंपी। भूप सिंह और उनके बेटों ने बड़ी वीरता से गढ़वाल के इस क्षेत्र को आज़ाद करवाने के लिए लड़े किन्तु वे इसमें सफल नहीं हो पाए और तीनों वीरगति को प्राप्त हो गए। इस युद्ध में तीलू के मंगेतर भी शहीद हो गए थे। और देखते ही देखते एक ही झटके में तीलू का पूरा परिवार ख़त्म हो चूका था।

घटना के कुछ दिन बाद कांडा में वार्षिक कौथिग मेले का समय था और तीलू रौतेली ने इसमें जाने की इच्छा व्यक्त की. उनकी माँ ने अपनी बेटी की इस जिद्द को देखकर तीलू से कहा की क्या उसे अपने भाइयों के याद नहीं आती। क्या तुम्हे अपनी पिता की मौत का बदला नहीं लेना। अगर तुम कही जाना चाहती हो तोह युद्ध के मैदान में जाऊं। माँ की इस ललकार ने तीलू के मनन में प्रतिशोद की ज्वाला भर दी अपनी साड़ी इच्छाओं को त्यागकर तीलू ने अपने मामा रामू भंडारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल और सहेलियों देवकी और बेलू की मदद से एक सेना तैयार की।छत्रपति शिवाजी महाराज के मराठा सेनापति, श्री गुरु गौरीनाथ को सेना का प्रभार दिया गया था। तीलू रौतेली की इस क्रांति को देखकर हजारों युवा उनकी सेना में शामिल हुए और प्रशिक्षण प्राप्त कर गुरिल्ला युद्ध में महारत हासिल की। ….तीलू रौतेली की सेना में उनियाल , डंगवाल , असवाल, सजवाण , खूँटी , खुगशाल ,जसतोड़ा, ढौंडियाल, पोखरियाल , सुन्द्रियाल,जोशी आदि सभी जाती के लोग शामिल थे। बहुत ही काम समय में तीलू ने अपनी सेना बनायीं और सेना की कमान सँभालते हुए कत्यूरी राजा धमशाही से युद्ध करने निकल पड़ी। तीलू ने सरायखेत में कत्यूरी सेना के सेनापति को पराजित करके अपने पिता की मौत का बदला लिया और खैरागढ़ को कत्यूरी राजा से मुक्त करवा दिया। वर्तमान में खैरागढ़ कालागढ़ के समीप का क्षेत्र है जिसे आज़ाद करवाने के लिए तीलू के पिता और भाई वीरगति को प्राप्त हुए थे। खैरागढ़ के आलावा सात वर्षों के दौरान, तीलू ने लगभग 13 किलों पर विजय प्राप्त की, जिनमें खैरागढ़, टकौलीगढ़, इंदियाकोट भौंखल, उमरागढ़ी, सल्ड महादेव, मसीगढ़, सरायखेत, उफ़रईखल, कालिंकाखल, दुमैलगढ़, भालंगभौन और चौखुटिया शामिल थे।

अपनी महान युद्ध नीतियों और अपनी कुशल विधाओं के चलते तिलु रौतेली ने अपनी बहादुरी का परचम पूरे प्रदेश में लहराया। उनके इसी युद्ध कौशल के चलते तीलू को हरा पाना उनके दुश्मनो के लये मुश्किल होता जा रहा था। इसलिए उनके दुश्मनो ने चल और कपट का रास्ता अपनाया। 15 मई 1683 को अपने घर लौट ते वक्त तीलू ने तल्ला कांडा क्षेत्र के समीप नायर नदी देखि। तीलू नदी में स्नान के लिए उत्तरी और अपनी तलवार को किनारे पर रखकर नहाने चली गयी। इसी दौरान कत्यूरी के सिपाही, रामू रजवार ने पीछे से उन पर हमला कर दिया और उनकी हत्या कर दी। अपनी अंतिम साँस तक दुश्मनों से लड़ने वाली उत्तराखंड की इस युवा योद्धा के जीवन का अंत हो गया। कांडा गाँव और बीरोंखल क्षेत्र के निवासी, तीलू रौतेली की याद में हर साल कौथिग का आयोजन करते हैं, और ढोल-दमाउँ और निशान के साथ तीलू रौतेली की मूर्ति की पूजा की जाती है। तीलू रौतेली के पराक्रम की कहानी को देखकर उत्तराखंड सरकार ने 2006 में ‘वीरबाला तीलू रौतेली पुरस्कार’ की शुरुआत की। यह पुरस्कार महिलाओं और लड़कियों को उनके संबंधित कार्य क्षेत्रों में, असाधारण प्रदर्शन के लिए दिया जाता है।उनके नाम पर उत्तराखंड में एक पेंशन योजना भी है जो कृषि क्षेत्र में कार्य के दौरान विकलांग हो चुकी महिलाओं के लिए समर्पित है।
उत्तराखंड की इस वीरांगना की कहानी को वीडियो के रूप में देखने के लिए आप निचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।
वीडियो :