बाघों का बढ़ता दबाव नहीं झेल पा रहा कॉर्बेट, पलायन को मजबूर हुए टाइगर, इंसानों के लिए खतरे की घंटी !
रामनगर, उत्तराखंड | रिपोर्ट: विशेष संवाददाता
देश में बाघों के सबसे सुरक्षित माने जाने वाले अभ्यारण्य जिम कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व में अब वही बाघ संकट में हैं, जिनके संरक्षण के लिए यह पार्क 1936 में स्थापित किया गया था। बढ़ती संख्या, सीमित संसाधन, और सिकुड़ता क्षेत्र — इन तीन बड़ी चुनौतियों ने जंगल के राजा को बेघर करने पर मजबूर कर दिया है।
📊 बाघों की बढ़ती आबादी, लेकिन घटती ज़मीन
कॉर्बेट टाइगर रिज़र्व का कुल क्षेत्रफल 1288.34 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें से 520.8 वर्ग किमी कोर ज़ोन और 797.7 वर्ग किमी बफर ज़ोन है। बाघ जैसे बड़े और टेरिटोरियल जीव के लिए यह क्षेत्र पहले पर्याप्त था, लेकिन अब यह अत्यधिक भीड़भाड़ वाला इलाका बनता जा रहा है।

वर्ष 2022 में जारी अखिल भारतीय बाघ गणना के अनुसार, उत्तराखंड में कुल 560 बाघ हैं, जिनमें से 260 से अधिक अकेले कॉर्बेट में रहते हैं। यह संख्या न केवल रिकॉर्ड तोड़ है, बल्कि रिज़र्व की धारण क्षमता (Carrying Capacity) से भी अधिक मानी जा रही है।
🚨 संकट के लक्षण: जब टाइगर खुद पलायन करने लगे
कॉर्बेट में अब टाइगर के पास इतना भी क्षेत्रफल नहीं है कि वे स्वतंत्र रूप से घूम सकें। आमतौर पर एक वयस्क नर बाघ को 15 से 50 वर्ग किमी तक का दायरा चाहिए होता है। लेकिन यहां कई बाघ 5 से 6 किमी में सिमटने को मजबूर हैं। इसका सीधा असर उनके व्यवहार, जीवनशैली और आपसी संघर्षों पर पड़ रहा है।
अब ये बाघ कॉर्बेट से बाहर निकलकर पहाड़ी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रहे हैं, जहां कभी इनकी मौजूदगी बहुत ही कम हुआ करती थी। पौड़ी, टिहरी, बागेश्वर जैसे इलाकों में बाघों को देखा जाना अब आम होता जा रहा है। इससे न केवल स्थानीय ग्रामीणों में भय का माहौल है, बल्कि यह मानव-वन्यजीव संघर्ष को भी बढ़ावा दे रहा है।
⚔️ आपसी संघर्ष और मानव-पशु टकराव

बाघ स्वभाव से अकेले रहने वाला प्राणी है, और जब किसी क्षेत्र में संख्या आवश्यकता से अधिक हो जाती है, तो इलाके और शिकार के लिए संघर्ष स्वाभाविक हो जाता है। कॉर्बेट में भी यही हो रहा है।
बाघों के बीच संघर्ष के चलते मौतें हो रही हैं, वहीं जो बाघ नए क्षेत्र की तलाश में आबादी की ओर बढ़ते हैं, वहां वे गांवों में मवेशियों पर हमला करते हैं, जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं बढ़ गई हैं। कई बार तो इंसानों की जान भी इस टकराव की भेंट चढ़ जाती है।
वर्ष 2000 से अब तक लगभग 190 बाघों की मौतें दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें से अधिकतर मामले कॉर्बेट और उसके आसपास के इलाकों से हैं।
🧠 वैज्ञानिक विश्लेषण: कब टूटेगी सीमा?
भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII) ने उत्तराखंड वन विभाग के साथ मिलकर कॉर्बेट की धारण क्षमता पर एक गहन अध्ययन शुरू किया है। राज्य के चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन रंजन मिश्रा ने बताया कि अब केवल कॉर्बेट ही नहीं, बल्कि तराई पश्चिम, रामनगर, लैंसडाउन वन प्रभागों में भी बाघों की उपस्थिति दर्ज की जा रही है। यह स्पष्ट संकेत है कि कॉर्बेट अपनी सीमा पार कर चुका है।
🌐 कॉर्बेट: उत्तराखंड ही नहीं, अब अन्य राज्यों के लिए भी स्रोत
कॉर्बेट अब खुद में सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी कॉर्बेट से बाघों के जाने के प्रमाण मिल रहे हैं। यानी कॉर्बेट अब न केवल उत्तराखंड, बल्कि देश के अन्य हिस्सों के लिए भी एक टाइगर-सोर्स ज़ोन बन चुका है।
वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि यदि समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए, तो यह बाघों की सुरक्षा और अस्तित्व दोनों के लिए गंभीर खतरा बन सकता है।
🛑 समाधान क्या हो?
- नए टाइगर रिज़र्व्स की स्थापना
- कॉरिडोर नीति को मजबूत बनाना
- बाघों का पुनर्वास (Relocation)
- मानव आबादी के साथ संतुलन और जागरूकता बढ़ाना
- इनब्रीडिंग को रोकने के लिए जीन पूल में विविधता लाना
“अगर धारण क्षमता का ध्यान रखा जाए, तो न बाघ आपस में लड़ेंगे और न इंसानों के इलाके में आएंगे।”
— राजेश भट्ट, वन्यजीव प्रेमी
🎯 निष्कर्ष: बाघों को चाहिए ‘जंगल’, भीड़ नहीं
कॉर्बेट नेशनल पार्क, जो एक समय में बाघों की शरणस्थली था, आज खुद उनकी भीड़ से जूझ रहा है। यह प्रकृति की एक विडंबना है कि जिस संरक्षित क्षेत्र को बाघों के लिए बनाया गया था, अब वही जगह उनके संघर्ष और पलायन का कारण बन रही है।
अब वक्त है कि सरकार, वन विभाग और समाज मिलकर बाघों के लिए नई सुरक्षित जगहों का निर्माण करें — ताकि जंगल के राजा फिर से अपने राज में रह सकें।